
सिंगरौली। मध्य प्रदेश सिंगरौली जिले में क्रेशर उद्योग एक बड़े पैमाने पर फैला हुआ है, लेकिन इस क्षेत्र में नियम-कानून और प्रशासनिक सख़्ती की स्थिति बेहद ढीली दिखाई दे रही है। कई क्रेशर संचालक नियमों और पर्यावरणीय मानकों को ताक पर रखकर मनमाने ढंग से संचालन कर रहे हैं, जिससे स्थानीय ग्रामीणों और पर्यावरण पर गहरा असर पड़ रहा है यही नहीं खनन गतिविधियों के लिए सरकार ने कड़े कानून और दिशानिर्देश बनाए हैं, और इनका पालन करवाने की ज़िम्मेदारी जिला कलेक्टर सहित प्रशासनिक अमले को सौंपी गई है। लेकिन हकीकत यह है कि यह ज़िम्मेदारी कागज़ों तक ही सीमित रह गई है। ज़मीनी स्तर पर क्रेशर संचालकों के सामने जिम्मेदार अधिकारी मानो घुटने टेक चुके हैं। परिणामस्वरूप, जिले के कई हिस्सों में क्रेशर संचालक खुलेआम नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं।
ग्रामीणों की शिकायतें, प्रशासन मौन आखिर क्यों…?
ग्रामीण और प्रभावित लोग कई बार इस अवैध गतिविधि के खिलाफ आवाज़ उठा चुके हैं। जनप्रतिनिधियों से लेकर जिला कलेक्टर तक को आवेदन सौंपकर न्याय की मांग की गई, लेकिन इन प्रयासों का नतीजा केवल फाइलों में दर्ज शिकायतों तक ही सीमित रह गया। आज भी कई गांवों के लोग क्रेशर संचालकों के “आतंक” से मुक्ति की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
चारागाह भूमि पर कब्ज़ा पशुधन पर संकट का माहौल स्थानीय निवासियों का कहना है कि बरगवां क्षेत्र के क्रेशर का है, जिस पर पशुओं के चारेगाह (चारागाह भूमि) पर कब्ज़ा करने के गंभीर आरोप लगे हैं। यह जमीन स्थानीय पशुपालकों और चरवाहों के लिए चारे का मुख्य स्रोत है। कब्ज़े के चलते घास और चारे की उपलब्धता घट गई है, जिससे ग्रामीणों के पशुधन पर सीधा असर पड़ रहा है।
चारागाह भूमि पशुपालन आधारित अर्थव्यवस्था के लिए रीढ़ की हड्डी मानी जाती है। इन इलाकों में पशुपालन केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि आय और रोज़गार का महत्वपूर्ण साधन है। जब क्रेशर संचालक इस भूमि पर अतिक्रमण कर लेते हैं, तो पशुपालकों को अपने पशुओं के लिए चारा जुटाने में भारी कठिनाई होती है। यह न केवल उनकी आमदनी घटाता है, बल्कि पशुधन के स्वास्थ्य और उत्पादकता को भी प्रभावित करता है।
ग्रामीणों का आरोप है कि स्थानीय प्रशासन और संबंधित विभागों की उदासीनता ने इस समस्या को और गंभीर बना दिया है। शिकायतों के बावजूद कार्रवाई न होना सवाल खड़े करता है क्या प्रशासन क्रेशर लॉबी के दबाव में है या भ्रष्टाचार इस स्थिति के पीछे असली कारण है? चारागाह भूमि के खत्म होने से न केवल पशुपालकों की रोज़ी-रोटी पर असर पड़ रहा है, बल्कि यह जैव विविधता और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को भी नुकसान पहुँचा रहा है। खुली भूमि और प्राकृतिक घास के मैदान मिट्टी के संरक्षण, जल पुनर्भरण, और जंगली जीवों के आवास के लिए जरूरी होते हैं।
प्रभावित लोगों ने मांग की है कि प्रशासन तत्काल प्रभाव से अवैध कब्ज़ों को हटाए, चारागाह भूमि को पुनः बहाल करे, और दोषी क्रेशर संचालकों के खिलाफ कड़ी कानूनी कार्रवाई करे। साथ ही, खनन गतिविधियों की पारदर्शी और नियमित निगरानी के लिए एक स्वतंत्र समिति का गठन किया जाए। यदि जल्द ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो यह समस्या सिर्फ ग्रामीणों की जीविका का संकट नहीं रहेगी, बल्कि आने वाले समय में यह एक बड़े सामाजिक और पर्यावरणीय संकट का रूप ले सकती है।